सोमवार, 19 दिसंबर 2016

"ममत्व या मजबूरी"


चुम्भन सा होता किसी, पंच्छी के तड़पाहन के पल,
पर अब चुम्भन उत्साहीता को,
धड़कने पत्थर रोक रही,
और उत्साहीता बचकानी बन,
उकेरने मूझे मज़बूर कर रही,
जब भी गुंजती है........
थाप की अवाज,
याद आ जाती........
उस पंच्छी की तड़पाहन,
एक नहीँ अनेक पलोँ सी,
अपने सपूतोँ के कुकर्मोँ की,
नीव की लकड़ी।
शायद अगले क्षेतिजोँ का फल,
पलोँ पहले भोग रहीँ,
बस एक पल,पल बिताने ,
पलोँ पहले इंतजार कर रहीँ,
ममत्व कहूँ या मज़बूरी ,
चुम्भन मज़बूरी की ओर,
और
उत्साहीता ममत्व की ओर,
उकेरने मूझे मज़बूर कर रहीँ।
- सीरवी प्रकाश
पंवार

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