सोमवार, 19 दिसंबर 2016

फिर अपनी हैवानियत....

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अपनी हैवानियत
दिन गुजर गए,
रातें बीत गयी,
पर......
पर नही थकते,
इन आॅखों के मंझर,
उत्साहिता होती हर पल,
बचकानी बनने को,
क्यों हूई एक बार उसकी,
जिन्दगी में हेर फेर,
जूदाईयाॅ लम्बी हो गयी,
ओर फिर क्यो भरा उसका,
नयन सागर रक्त से,
सागर तो दर्द बता रहा,
पर.....
रक्त पता नहीं,
पता नहीं.....
लगता है जलाएगा,
पर किसे....
अपने कलजे के टूकडे को,
या.....
फिर यू ही शान्त होकर मूझे,
लिखने को मझबूर कर रही,
पर पता नहीं....
कोनसे शब्द सागर से बयां करू,
आज फिर लफ्जों की कमी मुझे,
निचा दिखा रहीं,
या......
दर्द लिखने का प्रोत्साहन दे रही,
ऐ.....
खुदा माफ करना मुझे,
कि फर्क नहीं कर पा रहा में,
महिनों का दर्द बयां करू,
या....
दो पल का अहसास,
अहसास मूझे भी ना हूआ,
पर...
आंसुओ कि इस जिन्दगी में,
दर्द ही बयां कर पा रहा,
कि बस.....
फिर अपनी हैवानियत।
---सीरवी प्रकाश पंवार

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