सब पता है.....
बचपन से ही शौक था, चेहरे की लकीरों पर बैठकर नयन सागर घटाओं को पहचानने का।
एक अलग राह हैं मेरी, शौक बनाया था, पर अब पहचान बना रहा हूँ।
पर एक कांटा चुभ रहा हैं। पता था मुझे, अंगुली तो उठेंगी और उठना भी वाकिफ़ हैं-जब दूसरा पहलू ही नहीं तो सिक्का क्या काम का।मै पूर्ण रूप से इस बात से सहमत हूँ, उनसे और उन अंगुलियों।
पर आंगुलियो की वजह भी तो होनी चाहिए और जहाँ तक हैं मुझे तो दो ही वजह लगती,
एक मुद्दा तो उन लोगो का "इश्क़ ख़िलाफ़त जिन्दगी" है।
पर यह इतना वजूद नहीं रखता, क्यों की वो मेरे जीने का तरीका हैं।
और जब मुझे माँ के लिए लिखना होता हैं तो लिखता हूँ और लिखूंगा भी। और यहा पर वो पूर्णतया गलत हैं।पर वो कर भी क्या सकते "माँ" का मतलब नहीं पता उन्हें, मज़ाक लगता हैं उन्हें।पर बात जब दूसरे मुद्दे पर आती हैं, तब दुःख होता हैं कि इन्हे मेरी हिंदी-उर्दू से भी समस्या होती हैं। पर लेखन की अभिरुची बढ़ाने के लिए वो भी जरूरी हैं, बिन उसके लिखने का महत्व ही क्या रहेंगा।
और शायद जहा तक मुझे लगता है उनकी यह अंगुली भी गलत है, क्यों कि वो एक शैली हैं। और मुझे लगता हैं वो यह नहीं जानते।
पर आदत इंसान को सर-बल गिराने को मजबूर करती हैं, जो आज मेने किया हैं।
पर एक महत्वपूर्ण बात यह भी हैं कि वो अंगुली परायो की नही हुई, तब मेने 15,नवंबर की रत को लिखा था...
गुज़ारिश की थी खुद से,
एक इम्तहां तो लेकर देख,
हर बार आपनो का भेज है,
ज़रा परायो को भेज कर देख।
और अगर हिदायत उनके कम नहीं आ रही तो उनका भविष्य साफ दिख रहा।
मेरी तो ज़िद है लिखना....
कि फिर अंगुली उठी,
मेरी उन राहों पर,
जो शोकिया आदत से बनी, वजह पहले भी अहसास और आज भी,
पर फर्क आंगुलियो में नहीं,
मेरी ज़िद में है।
--seervi prakash panwar
December 22,2016