दो रत्न क्या जड़ दिए हुस्न में,
ये तो खुद को मुमताज़ समझ बैठे...
कागजों के बीच दो खोटे सिक्के का बजने से,
ये तो खुद को जिस्म के मोहताज कर बैठे...
आंखिर ये जो बेवजूद जीते इन लोगो से,
जीने की इक वज़ह तो पूँछु...
जो पल भर लकीरें क्या गढ़ ली चेहरे पर,
ये तो हर घर की चौखट समझ बैठे...
जब दो शब्द क्या लिख लिए व्यंग्य के,
ये तो खुद को बेउम्र मासूस समझ बैठे...
आंखिर वो जी भी कर क्या कर लेंगे,
जो खुद को सुबह का अख़बार समझ बैठे....
मै तो था ही अज़ीब पैदा होने से ही,
बेवज़ह तुम तो मुझे अलग समझ रहे हो...
आंखिर क्या वज़ूद रखती ये लकीरे मेरे आगे,
जो तुम लोग मुझे इनका मोहताज़ कर बेठे।
--सीरवी प्रकाश पंवार
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