शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

जो घर -घर घूमने वाला आवारा ..............

जो घर -घर घूमने वाला आवारा समझा हैं मुझे,
क्या यही कीमत थी मेरे विश्वास की....
जो चौराहे पर खड़ा कर मुर्ख समझा हैं मुझे,
क्या यही कीमत थी मेरे लफ्जो की...
इस आवारगी की मूर्खता को पहचानने की गलती कर, 
मज़ाक बनाया हैं मेरा,
जो हर तेरे जिक्र की फ़िक्र की थी मैने,
शायद इस ग़लती की यही क़ीमत थी मेरी खुद की....
--सीरवी प्रकाश पंवार 

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